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कविता

यह विवशता

शमशेर बहादुर सिंह


यह विवशता
      कभी बनती चाँद
      कभी काला ताड़
      कभी खूनी सड़क
      कभी बनती भीत, बाँध
      कभी बिजली की कड़क, जो
      क्षण-प्रतिक्षण चूमती-सी     पहाड़।
यह विवशता
      बना देती सरल जीवन को
      खून की आँधी।
यह विवशता
      मौन में भी है
      अथाह।

 

भावनाओं के सलीब
      स्‍वयं काँधा बन उठे-से हैं
कठिनतम।
      हड्डियों के जोड़
      खुल रहे हैं।
टूटते हैं बिजलियों के स्‍वप्‍न के आँसू;
आँख-सी सूनी पड़ी है भूमि।

 

क्रांत अंतर में अपार
      मौन।

[1945]
 

 


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