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यह विवशता
कभी बनती चाँद
कभी काला ताड़
कभी खूनी सड़क
कभी बनती भीत, बाँध
कभी बिजली की कड़क, जो
क्षण-प्रतिक्षण चूमती-सी पहाड़।
यह विवशता
बना देती सरल जीवन को
खून की आँधी।
यह विवशता
मौन में भी है
अथाह।
भावनाओं के सलीब
स्वयं काँधा बन उठे-से हैं
कठिनतम।
हड्डियों के जोड़
खुल रहे हैं।
टूटते हैं बिजलियों के स्वप्न के आँसू;
आँख-सी सूनी पड़ी है भूमि।
क्रांत अंतर में अपार
मौन।
[1945]
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